कर्मफल व्यवस्था
- “जो कोई अच्छा काम करेगा सुख पावेगा।" (समु० १३)
- “किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है। " (समु० ११)
- “किसी का किया हुआ पाप किसी के पास नहीं जाता, किन्तु जो करता है वही भोगता है; यही ईश्वर का न्याय है।" (समु० १३)
- "जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है।" (समु० १)
- “कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है। " (समु० ७)
- “जीव कर्म करने में स्वतन्त्र, परन्तु कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र है।" (समु० ८)
- “जीव जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है, उसके सुख-दुःख को, मन से किये को मन से, वाणी से किये को वाणी से और शरीर से किये को शरीर से भोगता है।" (समु० ९)
- “सब जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा करते हैं और दुःख का वियोग होना चाहते हैं, परन्तु जब तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते तब तक उनको सुख का मिलना और दुःख का छूटना न होगा।" (समु० ९)
- "जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है तब मनुष्य के जीव को पश्वादि नीच शरीर, और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वान् का शरीर मिलता है; और जब पुण्य - पाप बराबर होता है तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है।" (समु० ९)